तरुण सिसोदिया हैं मीडिया के सुशांत सिंह राजपूत फिर भी क्यों चुप है मीडिया जगत ! मै, मेरी पत्रकारिता और तरुण
लेख पसंद आये तो जरूर पत्रकार भाईयो को भेजे ताकि कोई और तरुण न बन सके !
सर , मैं कोरोना वायरस से संक्रमित हो गया हूं , कुछ दिनों की छुट्टी चाहिए ? और जवाब था कोई बात नहीं तुम वहीं अस्पताल में रहकर ही खबरों को फाइल करते रहो , वहीं से ड्यूटी करो …
क्या कोई सम्पादक खबरों को लेकर इतना गिर सकता है? जी हाँ ऐसा ही कुछ हुआ है युवा पत्रकार तरुण सिसोदिया के साथ जब उसने अपने बॉस को कहा की उसे कोरोना हो गया तो उसे कहा की अस्पताल में रहकर ही खबरों को फाइल करते रहो वहीं से ड्यूटी करो.... और फिर कहानी ने यही से मोड़ लिया और तरूण ने एम्स अस्पताल की चौथी मंजिल से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली अब भला इसे हम आत्महत्या कहे या ह्त्या ? मेरा सवाल उन सभी मीडिया कर्मियों से है जो लोग सुशांत की आत्महत्या को ह्त्या कह रहे है और लगातार दो दिनों तक जिन लोगो ने अपने चैनलों पर चलाया की सुशांत की आत्महत्या के पीछे की क्या कहानी है और किन लोगो के चलते सुशांत ने आत्महत्या की.तो फिर तरुण सिसोदिया की आत्महत्या पर क्यों नहीं मांग की जा रही है की जो लोग उसकी आत्महत्या के लिए दोषी है उन सभी पर ह्त्या का मामला दर्ज किया जाए.
जनवरी में तरुण को ब्रेन ट्यूमर डिटेक्ट हुआ तभी ही उसकी कंपनी उसे निकाल देना चाहती थी क्योंकि मिडिया में उगते सूरज को ही सलाम किया जाता है ये बात भी पूरी तरह सच है यही वजह रही की तरुण के पीछे कुछ लोग लगातार इस कोशिश में लगे रहे की किसी तरह वो दबाव में आकर नौकरी छोड़ दे लेकिन भला वो ऐसे में निर्णय कैसे ले सकता था क्योंकि एक तो उसका ऑपरेशन ऊपर से घर परिवार की जिम्मेदारी और ऐसे हालात में दूसरी जगह नौकरी मिलने से रही !
वो पत्थरों को भी चीर कर निकल जाते हैं। जो मुश्किल हालात में हौसला दिखाते हैं तरुण ने अपने फेस बुक पर ये पोस्ट लिखी थी ठीक उसी तरह जिस तरह सुशांत सिंह ने छिछोरे फिल्म में सुशांत ने आत्महत्या को लेकर डायलॉग मारा था लेकिन फिर भी वो खुद को आत्महत्या करने से नहीं रोका पाया और तरुण की पोस्ट का भी हाल कुछ ऐसा ही था फिर भला तरुण ने आत्महत्या क्यों की. तरुण ने ब्रेन ट्यूमर जैसी बिमारी का मुकाबला कर लिया उससे वो नहीं डरा तो क्या वह कोरोना से डर गया. ब्रेन ट्यूमर का नाम सुनते ही किसी के भी पैरो के निचे से जमीं खिसक जाएगी ऐसे में तरुण ने तो ब्रेन ट्यूमर होते हुए भी काम किया इसकी वजह थी उसका परिवार उसके बच्चे तो फिर वह आत्महत्या कैसे करता ?आत्महत्या करने से पहले भी उसके सामने उसके बच्चो का चेहरा तो जरूर आया होगा क्या उसने ये नहीं सोचा होगा उनके भविष्य का क्या होगा?
मै मनोज चंदेलिया तरुण से कभी नहीं मिला हूँ लेकिन तरुण की मौत की खबर सुनकर जरूर अफ़सोस हुआ और मै तरुण के तनावभरे आत्महत्या को लेकर फ्लेशबैक में चला गया अब आप लोग सोच रहे होंगे की कैसा फ़्लैशबैक? मै भी एक बड़ी कंपनी में कार्यरत था और 8 साल दिन रात लगातार काम किया लेकिन एक दिन कंपनी ने कई लोगो को नयी नौकरी खोजने के लिए कहा जिसमे मेरा भी एक नाम शामिल था.दुःख हुआ अफ़सोस हुआ कई दिनों तक नींद नहीं आयी मन में तरह तरह के ख़याल आये अकेले में रोना भी आया परिवार के सामने भी आंसू छलके लेकिन परिवार ने हौसला बढ़ाया तब जाकर आत्महत्या जैसे गलत निर्णय से मै बच पाया ख़याल तो आया की आत्महत्या कर लू सब टेंशन ख़त्म हो जाएगा हाउसिंग लोन का हफ्ता ,पर्सनल लोन का हफ्ता लेकिन परिवार का बीवी बच्चो का चेहरा सामने था खैर कुछ बाते जरूर सीखने मिली पत्रकारिता और चाटुकारिता में कोई ज्याद फर्क नहीं क्योंकि नौकरी भी उन लोगो की बची थी जो चाटुकारिता में माहिर थे और ये ही मीडिया जगत की हकीकत है कोई माने या ना माने !
तरुण की कहानी के साथ मैंने मेरी कहानी इसलिए साझा की क्योंकि ऐसे तनाव के दौर से सम्पादको के दबाव से में गुजर चूका हूँ और ऐसे कई पत्रकार हर चैनल और अखबार में मिलेंगे जो तरुण की तरह दबाव में मजबूरी के चलते काम कर रहे है.
हमारी मिडिया जगत की तो ऐसे हालत हे जहा पैसे बढ़ाने के बजाय कम किये जाते है आपको जब नयी जगह नौकरी मांगने के लिए जाना पड़ता हे तो आपकी पिछली सैलरी को देखकर बढ़ाने के बजाय उससे कम सैलरी पर काम करने के लिए कहा जाता और मजबूरी में ना चाहते हुए भी अच्छे से अच्छे बड़े पत्रकार अपना परिवार पालने के लिए ना चाहते हुए भी उतनी कम सैलरी में काम करने लग जाते है जितने में नौसिखिए पत्रकार काम करते है. कहते है महंगाई बढ़ गयी है रेल से लेकर हवाई जहाज और सब्जियों के दाम बढ़ जाते है लेकिन इन स्ट्रीजर (Freelancer) भाइयो का कुछ उलटा ही है एक वक्त था 10 साल पहले 1000रु एक स्टोरी का दिया जाता था उस हिसाब से आज पर स्टोरी कितना रेट होना चाहिए ? लेकिंन एकदम उलटा हो गया है आज पर स्टोरी1000 तो छोडो 50रुपये 70 रुपये 100रुपये ये हाल हो गया है.
इस कोरोना काल में ना जाने कितने पत्रकार भाई बेरोजगार हो गए है और होने वाले है कई ऐसे पत्रकार बेरोजगार भी हो चुके है जो वाकई में अच्छे इंसान अच्छे लेखक और अच्छे पत्रकार है साथ ही स्ट्रीजर (Freelancer) जो आजकल बेहद आर्थिक और मानसिक तौर पर भी परेशान है. जिनको लेकर इतना ही कह सकता हूँ निराश ना हो जीवन में कई बड़े मौके मिलेंगे सब कुछ ठीक होगा अगर आप ना होंगे तो आपके अपनो का क्या होगा? संभव नहीं है लेकिन अगर सरकार ऐसे पत्रकारों के लिए भी कुछ आर्थिक व्यवस्था करे या कुछ प्लान बनाये जिन लोगो को नौकरी से निकाला जा रहा हे तो शायद लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ को धराशायी होने से बचाया जा सकता है.
@manojchandeliya