अंधभक्त रो क्यों रहे हैं? : प्रोपेगेंडा फ़िल्म निर्माताओं का पर्दाफ़ाश

Update: 2025-09-14 07:03 GMT

हाल ही में रिलीज़ हुई उदयपुर फ़ाइल्स (जिसे बाद में ज्ञानवापी फ़ाइल्स नाम दिया गया) बॉक्स ऑफिस पर पूरी तरह से फ्लॉप साबित हुई। फ़िल्म का हाल इतना बुरा रहा कि न दर्शक आए, न ही कोई चर्चा हुई। इसके बाद फ़िल्म के निर्माता अमित जानी ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो डालकर हिंदू समुदाय पर ही भड़ास निकाल दी। उन्होंने दर्शकों को कोसा, गाली-गलौज की और कहा कि हिंदुओं ने ही इस "हिंदुत्व की लड़ाई" वाली फ़िल्म का साथ नहीं दिया।

लेकिन सवाल यह है कि क्या दर्शक किसी फ़िल्म को केवल “प्रोपेगेंडा” समझकर ही देखेंगे? सिनेमा केवल नारेबाज़ी और भावनाओं के नाम पर नहीं चलता। अगर फ़िल्म तकनीकी स्तर पर कमजोर हो, कहानी बोरिंग हो, सिनेमैटोग्राफी घटिया हो, तो चाहे उसमें कितना भी धार्मिक रंग भर दो, दर्शक टिकट खरीदकर देखने नहीं आएंगे। ज्ञानवापी फ़ाइल्स इन्हीं वजहों से पूरी तरह असफल रही।

यही हाल द बंगाल फ़ाइल्स का भी रहा। यह फ़िल्म द कश्मीर फ़ाइल्स के निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री ने बनाई थी। तकनीकी रूप से यह फ़िल्म अच्छी थी—कहानी, विज़ुअल और निर्देशन का स्तर ज्ञानवापी फ़ाइल्स से कहीं बेहतर था। लेकिन बॉक्स ऑफिस पर इसका नतीजा भी निराशाजनक रहा। कारण साफ़ है—दर्शक अब हर बार “पीड़ित हिंदू” या “साज़िश” जैसे एजेंडा वाले नैरेटिव को बिना सोचे-समझे स्वीकार करने के मूड में नहीं हैं।

जब द कश्मीर फ़ाइल्स आई थी तो वह अपने समय और विषय के कारण बहुत बड़ा मुद्दा बन गई। लेकिन हर बार उसी फॉर्मूले पर फ़िल्में बनाकर करोड़ों की कमाई की उम्मीद करना मूर्खता है। विवेक अग्निहोत्री ने भी फ़िल्म के न चलने पर वीडियो जारी किया, लेकिन सच्चाई यह है कि दर्शकों ने कंटेंट को ही नकार दिया।

निष्कर्ष

सिनेमा कला है, उपदेश या प्रोपेगेंडा नहीं। दर्शक भावनाओं से जुड़े रहते हैं, लेकिन वे बेवकूफ़ नहीं हैं। उन्हें अच्छी कहानी, बेहतर प्रस्तुति और सच्चाई चाहिए। अगर निर्माता केवल “हिंदुत्व कार्ड” खेलकर पैसा कमाने का सपना देखेंगे, तो फिर ऐसे ही रोते हुए वीडियो पोस्ट करते नज़र आएंगे।

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