मुंबई टॉप पर, हरियाणा-पंजाब में भी बढ़ी बेटियों की संख्या, बदल रही सोच
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मुंबई। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेज का शोध कुछ और ही इशारा कर रहा है. इस रिसर्च से पता चलता है कि बेटियों को लेकर देश के लोगों का विचार बदल रहा है. एक ओर जहां बेटियों की संख्या पिछले 3 दशक से बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर बेटों की चाहत भी कम हो रही है. यानी, लोगों की नजर में अब बेटे-बेटियों में ज्यादा अंतर नहीं दिख रहा. हर साल लगभग 1 करोड़ 20 लाख बेटियों का जन्म होता है, लेकिन 15 साल की उम्र होते-होते 30 लाख की मौत हो जाती है. इनमें से हर छठी लड़की की मौत लैंगिक भेदभाव के कारण होती है. इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेज के इस शोध का नेतृत्व मुंबई के जनसंख्या विज्ञान संस्थान के प्रोफेसर हरिहर साहू और रंगासामी नागराजन ने किया.
इस सर्वे को 1992 से लेकर 2016 के बीच किया गया, जिसमें 8 लाख 88 हजार परिवार की लगभग 10 लाख महिलाओं ने हिस्सा लिया. इन्हें निरक्षर, शिक्षित, धार्मिक और जातीय आधार पर चार हिस्सों में बांटा गया. ये सर्वे भी 4 चरण में पूरा किया गया. महाराष्ट्र में एक बेटी वाले परिवार 26%, दो बेटी के परिवार 63.4% और तीन बेटी के परिवार 71.5% हैं. इसमें एक बेटी वाली फैमिली के मामले में मुंबई 47.7 प्रतिशत के साथ टॉप पर है. केरल में एक बेटी वाले परिवार 36.8%, दो बेटी के परिवार 85% और तीन बेटी के परिवार 84.9% हैं. इसमें एक बेटी वाली फैमिली के मामले में पलक्कड़ 70.3 प्रतिशत के साथ टॉप पर है. वहीं, हरियाणा में एक बेटी वाले परिवार 27.3%, दो बेटी के परिवार 41.4% और तीन बेटी के परिवार 40.6% हैं.
सिंगल डॉटर्स के मामले में पंचकुला 43.4 प्रतिशत के साथ टॉप पर है. पंजाब में 10 साल में एक बेटी वाले परिवार 21%, दो बेटियों वाले परिवार 37% व तीन बेटियों वाले परिवार 45% बढ़े हैं.सर्वे में ये भी पाया गया कि हरियाणा और पंजाब देश की औसत लैंगिक समानता से काफी पीछे हैं, लेकिन वहां पर धीरे-धीरे सुधार हो रहा है. साल 2001 में पंजाब में जहां 1 हजार बेटों के सामने 798 बेटियां थीं, वहीं 2011 में यह आंकड़ा 846 तक पहुंच गया. वहीं, हरियाणा में 2001 में यह औसत प्रति हजार 819 था, जो 2011 में बढ़कर 830 तक पहुंच गया.