Dada kondke

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अंधेरी रात में दीया तेरे हाथ में’ हिंदी में जमकर हुई फेमश

मुंबई। जब फि‍ल्‍मों में कॉमेडी की बात आती है तो सबसे पहले दादा कोंडके का नाम आता है। दादा कोंडके कॉमेडियन थे, गीतकार और लेखक भी। इस एक्टर को हिंदी सिनेमा में जो शोहरत मिली वो हर किसी को नसीब नहीं हुई। हिंदी फि‍ल्‍मों में डबल मीनिंग डायलॉग्स या फिल्मों के नाम के चलन की शुरुआत दादा कोंडके ने ही की थी। दादा कोंडके। एक ऐसा कलाकार जो न सिर्फ निम्नवर्गीय दर्शकों के मनोरंजन का केंद्र था, बल्कि गरीबों की दिनभर की मेहनत और थकान को अपनी एक्टिंग और डायलॉग के जरिये राहत देने वाला भी था। यह वो दौर था जब मराठी फिल्मों में कॉमेडी तो होती थी, लेकिन किसी को अंदाजा भी नहीं था कि दादा कोंडके की फि‍ल्‍मों की वजह से कॉमेडी इस कदर बदल जाएगी।

दादा कोंडके की फि‍ल्‍मों के दो वर्ग थे। एक उनकी कॉमेडी को बहुत एंजॉय करता था तो दूसरा उसे फूहड़ मानता था। उस दौर में दादा कोंडके की 9 फिल्में 25 से ज्यादा हफ्तों तक सिनेमाघरों में चली थी। यह एक रिकॉर्ड के तौर पर गिनीज़ वर्ल्ड बुक में दर्ज है। डबल मीनिंग डायलॉग्स और कॉमेडी को बॉलीवुड ने भी हाथों-हाथ लिया। 8 अगस्त 1932 में दादा कोंडके का जन्म हुआ था। उनका पूरा नाम कृष्णा दादा कोंडके था। उनकी पहली फिल्म तांबडी माती 1969 में रिलीज हुई थी। इसके बाद कई फिल्में अंधेरी रात में दीया तेरे हाथ में रिलीज हुई। ये फिल्में मराठी में खूब चली, जबकि ‘अंधेरी रात में दीया तेरे हाथ में’ हिंदी में जमकर चर्चित हुई। 30 सितंबर 1997 को दादा कोंडके का निधन हो गया। साल 1975 में दादा कोंडके की फिल्म ‘पांडू हवलदार’ आई।

इसमें उनका नाम भी दादा कोंडके ही रखा गया। यह फिल्म इतनी चली कि महाराष्ट्र में अब भी हवलदारों को पांडू नाम से पुकारा जाता है। दादा कोंडके एक मिल मजदूर के बेटे थे। बचपन और शुरुआती जीवन बॉम्बे के लालबाग में एक छोटे, मैले क्वार्टर में गुजरा, लेकिन तब भी वहां उनकी धूम थी। मार-कुटाई करते थे। फिल्म सोंगाड्या जो 1971 में आई थी, दादा कोंडके शिवसेना से जुड़े। यह फिल्म हिट रही थी। देव आनंद की जॉनी मेरा नाम की वजह से इस फिल्म को बॉम्बे के दादर स्थित कोहिनूर थियेटर ने लगाने से मना कर दिया था,

जबकि वे इसकी पहले ही बुकिंग करा चुके थे। कोंडके शिव सेना के प्रमुख बालासाहेब ठाकरे के पास गए। शिव सैनिकों की फौज थियेटर के बाहर प्रदर्शन किया और हंगामा किया इसके बाद फिल्म कोहिनूर में रिलीज हुई। वे शिवसेना की राजनितिक रैलियों में लोगों की भीड़ जुटाने का काम करने लगे। वह भीड़ जो उनकी दीवानी थी और उनकी हर सही-गलत बात पर हंसती, चीखती थी। एक चॉल से बॉम्बे के शिवाजी पार्क में शानदार पेंटहाउस तक पहुंचे।

Updated : 8 Aug 2020 6:01 PM IST
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