कहानी नीतीश कुमार की: ना ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे...
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नीतीश को इस बार सीएम बनने से इनकार इसलिए था, क्योंकि उनकी पार्टी जदयू 43 सीट ही जीत सकी है। कभी छोटे भाई की भूमिका में रही भाजपा ने 74 सीटें जीती हैं। ना ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे...यह गाना नीतीश पर बिल्कुल सटीक बैठता है। आखिर बीजेपी के साथ सरकार बना सीएम बन ही गए। 'नीतीश कुमार ने 7 दिन के मुख्यमंत्री से लेकर 7वीं बार के मुख्यमंत्री तक का सफर तय किया है। नीतीश कुमार के जीवन में एक वक्त ऐसा भी आया था, जब वो राजनीति छोड़कर ठेकेदारी में आने का मूड बना चुके थे। नीतीश को पहले चुनाव में जिससे हार मिली थी, उनका नाम था भोला प्रसाद सिंह।
भोला प्रसाद सिंह वही नेता थे, जिन्होंने चार साल पहले ही नीतीश और उनकी पत्नी को कार में बैठाकर घर तक छोड़ा था। नीतीश पहली हार को भूलकर 1980 में दोबारा इसी सीट से खड़े हुए, लेकिन इस बार जनता पार्टी (सेक्युलर) के टिकट पर। इस चुनाव में भी नीतीश को हार मिली। वो निर्दलीय अरुण कुमार सिंह से हार गए। अरुण कुमार सिंह को भोला प्रसाद सिंह का समर्थन हासिल था। इस हार के बाद नीतीश इतने निराश हो गए कि उन्होंने राजनीति छोड़ने का मूड बना लिया। इसकी एक वजह ये भी थी कि नीतीश को यूनिवर्सिटी छोड़े 7 साल हो गए थे और शादी हुए भी काफी समय हो चुका था।
इन तमाम सालों में वो एक पैसा भी घर नहीं लाए थे। इन सबसे तंग आकर नीतीश राजनीति छोड़कर एक सरकारी ठेकेदार बनना चाहते थे। वो कहते थे 'कुछ तो करें, ऐसे जीवन कैसे चलेगा?' हालांकि, वो ऐसा नहीं कर पाए। बात 2000 के विधानसभा चुनाव की है। किसी एक पार्टी या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला था। तब नीतीश अटल सरकार में कृषि मंत्री थे। चुनाव के बाद अटलजी के कहने पर भाजपा के समर्थन से ही नीतीश ने पहली बार 3 मार्च 2000 को बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
बहुमत नहीं होने के कारण उन्होंने 7 दिन में ही इस्तीफा दे दिया। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी की तरह ही इस्तीफा देते हुए कहा कि वो जोड़-तोड़ से सरकार नहीं बनाना चाहते। अटल बिहारी वाजपेयी ने भी 1996 में 16 दिन तक प्रधानमंत्री रहने के बाद यही बात कहते हुए इस्तीफा दिया था।