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सांस्कृतिक सृजनकार काल की पुकार!

सांस्कृतिक सृजनकार काल की पुकार!
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मंजुल भारद्वाज

देश और दुनिया आज सांस्कृतिक रसातल में है। तकनीक के बल पर संचार माध्यम में सारा विश्व लाइव है। त्रासद यह है की तकनीक लाइव है आदमी मरा हुआ है. मरी हुए दुनिया को तकनीकी संचार लाइव कर रहा है. कमाल का विकास है व्यक्ति, परिवार,समाज, देश और दुनिया मरे हुए और तकनीक लाइव! सवाल है आज कौन जिंदा है? हाँ हाड मांस के पुतले सांस ले रहे हैं पर क्या वो जिंदा हैं? जो सांस ले रहे हैं उनकी अवस्था क्या है? घरों में कैद,भूख, भय और भ्रम के जाल में फंसे हुए लोग क्या जिंदा होते हैं? लाखों लोग महामारी की वजह से सांस भी नहीं ले पा रहे और अकाल बैठ गए हैं मृत्यु की गोद में. अनजाने भय से ग्रस्त दुनिया आज मरी हुई रेंग रही है और तकनीक उसे लाइव बता रही है..हैं ना विकास का खिला हुआ कमल चेहरा! जिंदा होने का अर्थ है भयमुक्त होना, विचार शील होना,विकारों से परे विवेक सम्मत होना.

अपने विचार को साहस से व्यक्त करते हुए मानव कल्याण के लिए सत्य को खोजना. 21वीं सदी में जीवन यापन के सारे मुकाम हासिल करने के बाद भी दुनिया की यह हालत क्यों हुई? इस हालात की जड़ है लालच,वर्चस्ववाद और एकाधिकारवाद के लिए भूमंडलीकरण के नाम पर मनुष्य का वस्तुकरण, मनुष्य को उपभोग की सामग्री बनाकर ‘खरीदने और बेचने’ का विनाशकारी षड्यंत्र, जिसे ‘विकास’ के नाम से तकनीकी संचार से लाइव किया गया.लाइव तकनीकी संचार ने सिर्फ़ 30 सालों में एक ऐसी पीढ़ी तैयार की जिसने विचार करने का मनुष्य कर्म आउटसोर्स कर दिया. यानी मनुष्य और प्राणी के फ़र्क को मिटा दिया. प्राणियों से मनुष्य को अलग करती है ‘विचार करने की क्षमता’ ! ‘विचार करने की क्षमता’ को खोकर केवल प्राणी बनना स्वीकार किया. प्राणी होने का मतलब है जिसके सारे निर्णय कोई और करे. ड्राइंग रूम में टीवी देखते हुए,मोबाइल पर भ्रमण करते हुए इन्टरनेट के माध्यम से अपनी जीवनयापन की जरूरत पूरी करने वाली दुनिया विचार करना भूल गई और एकाधिकारवाद के हाथों बिक गई.

एकाधिकारवाद ने जीयो का भ्रम पैदाकर दुनिया को अपनी मुठ्ठी में कर लिया.अब एकाधिकारवाद दुनिया को अपनी मुठ्ठी में लेकर खेलता है,हसंता है और तकनीकी संचार से लाइव लाइव खेलता है और ज़ोर ज़ोर से जीयो जीयो मन्त्र का जप करता है. एकाधिकारवाद का मतलब है विविधता का खात्मा! विविधता का खात्मा मतलब प्रकृति पर कब्ज़ा करने की हिमाक़त. उसी हिमाकत का प्रकृति आज उत्तर दे रही है.आज मनुष्य को जन्म देने वाली,पालने वाली प्रकृति उसके विरुद्ध खड़ी हो गई है और उसे लील रही है… इसमें हाशिये पर रहने वाले पहले शिकार हो रहे हैं..पर प्रकृति धीरे धीरे एकाधिकारवाद तक पहुँच रही है.मनुष्य के इस पतन का कारण है। उसकी सांस्कृतिक चेतना का मर जाना. इतिहास साक्ष्य है कोई कितना भी बलशाली,सिद्धहस्त,सर्वज्ञ व्यक्ति,समाज,सभ्यता या साम्राज्य रहा हो जब जब उसकी सांस्कृतिक चेतना भ्रमित हुई वो मिट गए. सांस्कृतिक चेतना “वो चेतना है जो मनुष्य को आंतरिक और बाहरी आधिपत्य से मुक्त कर उसके मूल्यों को उत्क्रांति के पथ पर उत्प्रेरित करती है और प्रकृति के साथ जीते हुए मनुष्य का एक स्वायत्त अस्तित्व बनाती है” पर विज्ञान को दफ़न कर उससे ईज़ाद तकनीक से एकाधिकारवाद ने प्रकृति से युद्ध का ऐलान कर दिया और पूरी मनुष्य संस्कृति को मटियामेट करने पर आमदा है।

ऐसे प्रलय काल में सांस्कृतिक सृजनकार ही दुनिया को बचा सकते हैं, जब पूरी राजनैतिक व्यवस्था बिक गई हो, धर्म पाखंड का अवतार ले महामारी काल में अस्पताल बनाने की बजाए अपनी सत्तालोलुता के लिए जनमानस में बसे भगवान के मंदिर का शिलान्यास कर,उनकी आध्यात्मिक संवेदनाओं से खेल रहा हो तब सांस्कृतिक सृजनकार ही समाज को उसकी मूर्छित अवस्था से जगा सकते हैं. मनुष्य निरंतर परिवर्तन चाहता है. परिवर्तन की चाहत प्राकृतिक है. प्रकृति भी निरंतर परिवर्तित होती रहती है. मनुष्य के लिए आवश्यक है परिवर्तन को समझना.परिवर्तन एक ऐसी वर्तन प्रकिया है जो मनुष्य की हिंसा को अहिंसा, आत्महीनता को आत्मबल, विकार को विचार, वर्चस्ववाद को समग्रता, व्यक्ति को सार्वभौमिकता के प्राकृतिक न्याय और विविधता के सहअस्तित्व विवेक की ओर उत्प्रेरित करे! परिवर्तन को उत्प्रेरित करते हुए विगत 28 वर्षों से ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ नाट्य सिद्धांत सतत सरकारी, गैर सरकारी, कॉर्पोरेटफंडिंग या किसी भी देशी विदेशी अनुदान के बिना अपनी प्रासंगिकता,अपने मूल्य और कलात्मकता के संवाद - स्पंदन से ‘इंसानियत की पुकार करता हुआ जन मंच’ का वैश्विक स्वरूप ले चुका है.

सांस्कृतिक चेतना का अलख जगाते हुए मुंबई से लेकर मणिपुर तक, सरकार के 300 से 1000 करोड़ के अनुमानित संस्कृति संवर्धन बजट के बरक्स ‘दर्शक’ सहभागिता पर खड़ा है “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” रंग आन्दोलन! “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” ने जीवन को नाटक से जोड़कर विगत 28 वर्षों से साम्प्रदायिकता पर ‘दूर से किसी ने आवाज़ दी’,बाल मजदूरी पर ‘मेरा बचपन’,घरेलु हिंसा पर ‘द्वंद्व’, अपने अस्तित्व को खोजती हुई आधी आबादी की आवाज़ ‘मैं औरत हूँ’ ,‘लिंग चयन’ के विषय पर ‘लाडली’ ,जैविक और भौगोलिक विविधता पर “बी-७” ,मानवता और प्रकृति के नैसर्गिक संसाधनो के निजीकरण के खिलाफ “ड्राप बाय ड्राप :वाटर”,मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने के लिए “गर्भ” ,किसानो की आत्महत्या और खेती के विनाश पर ‘किसानो का संघर्ष , कलाकारों को कठपुतली बनाने वाले इस आर्थिक तंत्र से कलाकारों की मुक्ति के लिए “अनहद नाद-अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स” , शोषण और दमनकारी पितृसत्ता के खिलाफ़ न्याय, समता और समानता की हुंकार “न्याय के भंवर में भंवरी” , समाज में राजनैतिक चेतना जगाने के लिए ‘राजगति’ नाटक के माध्यम से फासीवादी ताकतों से जूझ रहा है! कला हमेशा परिवर्तन को साधती है. क्योंकि कला मनुष्य को मनुष्य बनाती है. जब भी विकार मनुष्य की आत्महीनता में पैठने लगता है उसके अंदर समाहित कला भाव उसे चेताता है … थिएटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य सिद्धांत अपने रंग आन्दोलन से विगत 28 वर्षों से देश और दुनिया में पूरी कलात्मक प्रतिबद्धता से इस सचेतन कलात्मक कर्म का निर्वहन कर रहा है.

गांधी के विवेक की राजनैतिक मिटटी में विचार का पौधा लगाते हुए थिएटर ऑफ़ रेलेवंस के प्रतिबद्ध कलाकार समाज की फ्रोजन स्टेट को तोड़ते हुए सांस्कृतिक चेतना जगा रहे हैं. आज इस प्रलयकाल में थिएटर ऑफ़ रेलेवंस ‘सांस्कृतिक सृजनकार’ गढ़ने का बीड़ा उठा रहा है! सत्य-असत्य के भान से परे निरंतर झूठ परोसकर देश की सत्ता और समाज के मानस पर कब्ज़ा करने वाले विकारी परिवार से केवल सांस्कृतिक सृजनकार मुक्ति दिला सकते हैं. सांस्कृतिक सृजनकार काल की पुकार!…..

Updated : 5 Aug 2020 11:00 AM GMT
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