परदेसियों ने पकड़ी गांव से शहर की डगर
लॉकडाउन के दौरान लंबी दूरी पैदल चलकर भूखे पेट, नंगे पैर अपने गांव चले जाने वाले प्रवासी मजदूर एक बार फिर से मुंबई, ठाणे, पुणे, सूरत, दिल्ली सहित अन्य बड़े शहरों की ओर लौटने लगे हैं। रोजी-रोटी के लिए पिछला दुख दर्द भूलकर पुन: वापस आने लगे हैं। यूपी, बिहार, झारखंड, बंगाल, ओडीसा आदि राज्य के श्रमिक सारी यातनाएं भूल कर फिर से शहरों की ओर रूख करने लगे हैं। मुंबई, पुणे, दिल्ली सहित तमाम बड़े शहरों में काम करने वाले मजदूरों पर यहां की कंपनिया डोरे डाल रही है। कारखानों के मालिक उन्हें फोन करके बुला रहे हैं।
कुछ श्रमिकों ने बताया कि मजदूरों के अभाव में बंद कंपनियों के मालिक अधिक वेतन देने का वादा कर हमें शहरों में बुला रहे हैं। यहीं श्रमिक शहरों में कोविड-19 और लॉकडाउन के कारण भूखे प्यासे थे तो शहर न जाने की कसमें खा रहे थे लेकिन बेरोजगारी और गांवों में काम की कमी इन्हें अपना गांव छोड़ने के लिए मजबूर कर रही है। अब सवाल है कि लाकडाउन के दौरान ज्यादातर राज्य की सरकारों ने अपने राज्यों के मजदूरों को इस तरह गांव लौटने की दुहाई दे रहे थे, मानो घर लौटने पर मजदूरों के जरिये वे आर्थिक मोर्चे पर ऐसा ताना-बाना खड़ा कर देंगे, जो पलायन रोकने में सफल होगा. मगर यह सब बेकार साबित हुआ है। जैसे-जैसे दिन बीतने लगे हैं, गांव लौटे लोगों को लगने लगा है कि सरकार की मुफ्त अनाज योजना और मनरेगा के जरिये उनके परिवार का पेट भले ही कुछ महीने भर जाये, लेकिन इससे उनके परिवार की दूसरी बुनियादी आवश्यकताएं शायद ही पूरी होंगी.
लिहाजा, गांव छोड़कर उस महानगर की ओर कामगार लौटने लगा है, जिसे वह पराया समझ कर छोड़ आया था. अव वही शहर फिर उनको याद आने लगा है और धीरे-धीरे गांव से शहर की ओर फिर से मजदूरों का पलायन शुरू हो चुका है। कोरोना में जो पलायन हुआ, उसके कई कारण रहे. कुछ लोग बीमारी के डर से घरों को लौट पड़े, तो कुछ को उन महानगरों और औद्योगिक केंद्रों ने उपेक्षित छोड़ दिया, जिनकी जीवन रेखा ये कामगार ही थे. कुछ राज्य सरकारों ने यह भी सोचा कि अगर वे अपने यहां की भीड़ को उनके मूल स्थानों की ओर भेज देंगे, तो वे कोरोना संकट का आसानी से मुकाबला कर सकेंगे.लेकिन इस आपाधापी और भागमभाग का उल्टा असर पड़ा है. प्रवासियों के जरिये उनके पैतृक स्थानों तक तो कोरोना पहुंचा ही साथ ही मुंबई, दिल्ली, सूरत और अहमदाबाद, बेंगलुरू जैसे महानगरों में भी कोरोना और ज्यादा बढ़ गया.
इस पूरी राजनीति में आर्थिक गतिविधियां लंबे समय के लिए पूरी तरह ठप हो गयीं. संपन्न राज्यों को में अनलॉक शुरू होने के बाद अपनी आर्थिक गतिविधियां बढ़ाने के लिए मजदूरों की कमी खलने लगी. अब यह राज्य चाहते हैं कि उनके यहां मजदूर लौटें और काम शुरू हो. मुंबई, पुणे के कुछ कारोबारी मजदूरों के खाते में पैसे ट्रांसफर कर रहे हैं। कई कारोबारियों ने तो फ्लाइट का टिकट भी भेजा सुपरवाइजरों को कि वह खुद आएं और मजदूरों को लेकर आएं। यहीं नहीं पुणे की कुछ कंपनियों ने मजदूरों को लाने के लिए बाकायदा लग्जरी बसें यूपी भेजी थी और मजदूर उन बसों में बैठकर आ रहे हैं। एक बार फिर से शहर, औद्योगिक और रोजगार केंद्र आबाद होने जा रहे हैं। हालांकि कोरोना के चलते यह प्रक्रिया बेशक कुछ महीनों तक धीमी रहेगी।
इस संकट काल में गांवों की ओर लौटते लोगों को देख लोगों को लगा कि यह प्रक्रिया रुकेगी, दस्तकारी को बढ़ावा मिलेगा. ऐसा सोचते वक्त वे भूल गये कि दस्तकारी आदि की जो बुनियादी सहूलियत खत्म हो चुकी है, उसे एकबारगी जिंदा नहीं किया जा सकता। इसलिए गांवों में लौटे हाथों को काम दे पाना मुश्किल होगा. जब तक गांवों में बुनियादी सहूलियतें नहीं बढ़ायी जायेंगी, नीतिगत रूप से गांव को आर्थिक गतिविधियों के केंद्र में नहीं लाया जायेगा, दस्तकारी के लिए बाजार का निर्माण नहीं किया जायेगा, तब तक गांवों की प्रतिभाओं को गांवों तक रोक पाना आसान नहीं होगा. भारत में करोड़ों लोग महज पेट की आग बुझाने के लिए अपने घर से दूर जाने को मजबूर हैं। गांवों को समृद्ध बनाने के लिए राज्य सरकारों को आगे बढ़ना होगा। रोजगार लाना होगा। तभी जाकर गांवों से शहरों की तरफ पलायन रूक पाएगा।